कालेज के तीन साल भाग 4

नमस्कार मित्रो !
हम पढ़ रहे  है  देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार के छात्र  गौरव कलौनी की लिखी कहानी जिसका नाम है ,  कालेज के तीन साल | यह कहानी वास्तिविक है  उन्होंने अपने ग्रेजुएशन के  तीन वर्षो का अनुभव शेयर किया है | 
अब तक  हमने पढ़ा कैसे गौरव ने अपने कालेज का सफ़र शुरू किया जिसमे कुछ परेशानी तो हुई लेकिन बहुत कुछ सिखने को मिला | उसकी मुलाकात कुछ दोस्तों से हुइ जिन्होंने उसे कभी अकेला न होने दिया| वह एक सफल शुरुआत की ओर अग्रसर था | मुलाकातो के उस दौर में कुछ और दोस्तों का मिलना हुआ | साथ ही कुछ लोगो से अनबन भी हुई लेकिन एक ऐसा पल भी उनकी जिन्दगी में आया जिसने उन्हें दीवाना बना दिया | और उनकी दोस्ती की लिस्ट में कुछ अन्य नाम जुड़े जो थे तो अनजाने होने के बाद भी पारिवारिक लेकिन लग रहे थे | उन्होंने अपने प्रिय खेल को भुनाते हुए नये खेल को अपने जीवन में उतारने लगे जो उन्हें बहुत कुछ सिखाने वाला था |
अब आगे.....
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रोजाना सुबह और शाम हम लोग कुश्ती का नियमित अभ्यास करने लगे... एक अच्छा वक्त गुजर रहा था... तभी एक शाम को सहपाठियों में अफरा तफरी का माहौल था... पूछने पर पता चला कि भाई आज परीक्षा के परिणाम घोषित कर दिये गये हैं... और हम भी शर्मा जी के साथ परिणाम देखने चल दिए... परिणाम देखने के बाद हमारा और शर्मा जी की प्रतिक्रिया एक जैसी थी... कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन का सिद्धांत था हम दोनों का... अब बारी थी लोगों की प्रतिक्रिया देखने की... जो सच में ही अप्रत्याशित थी... आज तक अच्छे नहीं नहीं नहीं... बहुत अच्छे दोस्त होने का दावा करने वाले लोग भी... अपने तथा कथित प्रिय मित्र के 1-2% ज्यादा आने पर उसके खिलाफ बोलने लगे... अब यहाँ की राजनीति और समीकरण कुछ कुछ समझ आने लगे थे... कोई 80% लाकर भी दुखी था तो कोई 65% पर भी खुश था...
हमारे कमरे में 8 छात्र रहा करते थे... सब से ही संबंध अच्छे थे हमारे... या हो सकता है कि यह हमारा वहम हो, वक्त के गर्भ में क्या छुपा है भला, वहम या हकीकत जल्द ही चल जाएगा पता कुछ लोग सरल स्वभाव के थे बिलकुल और कुछ अंदर कुछ और बाहर कुछ|



खैर जो समीकरण सिर्फ एक परीक्षा के परिणाम से बिगड़ सकते थे वहाँ कुछ भी हो सकता था तो हमने सोचा कि जो है ठीक है क्योंकि  हमेशा नहीं रहते सभी चेहरे नकाब में... वक्त हटा ही देता है पर्दे धीरे-धीरे
मुकुल भाई और चेतन जी के साथ भोजनालय से चुराकर लाई हुई रोटीयों को... बगीचे से तोड़ी हुई कैरियों की मैगी बनाकर खाने का मजा ही कुछ और था... मुकुल भाई को मम्मी की और चेतन को चिमटे की उपाधि दी जा चुकी थी...

इसी बीच हमारी मित्रता कुछ और लोगों से भी हुई... हमारी ही सहपाठी जिसने हमें हमारी उस क्रश का नंबर लाकर दिया था... कुछ कुछ तालमेल हमारा सही बैठने लगा था... लेकिन कुछ गलतफहमियों की वजह से उस से हमारी मित्रता में दरार आ गई थी... मित्रता में दरार के बावजूद उसके मुख से कभी भी अपने लिए गलत नहीं सुना था...

खैर वक्त आगे बढ़ता रहा... हर रोज कुछ न कुछ रोमांचक होता जा रहा था... चाहे वो कुश्ती के मैदान में हो... जीवन प्रबंधन की कक्षाओं में sex education पर अपनी बेबाक राय रखना या फिर छात्रावास निरीक्षक से झड़प होना और उनके द्वारा हमे धमकाया जाना कि... 3 साल पूरे करने भी हैं या नहीं? सुधर जाओ अब भी समय है...
लेकिन उनके वो लंबे चौडे भाषण सुनने के बाद हमारे कानों में जूं तक नहीं रेंगती थी... और हमारा मस्त मलंग सा स्वभाव जारी रहा...
सिर्फ छात्रावास अधीक्षक को ही नहीं हमारा यह व्यवहार कुछ सहपाठियों को भी खटकता था... वे उसे शब्दों में तो नहीं लेकिन अपने हाव-भाव से जाहिर कर देते थे... और हमारा मानना था कि अगर कोई आपसे बिना कारण जलता हो तो उसे एक कारण दे दो जलने का...

लेकिन हम एक बात को लेकर खुश थे कि हमारे पास बहुत बेहतरीन बड़े भाई लोग मुकुल भाई, लवली भाई, मिश्रा जी, दिवाकर भाई, रतन भाई, द्विवेदी जी, और खरी जी थे... और एक खुशी इस बात की रहती थी की हमारी बात-चीत हमारी क्रश से सुचारू रूप से चल रही थी... भले ही सिर्फ संदेशों के आदान-प्रदान के द्वारा... सारे दिन की थकान के बाद... टहलते हुए उसको देखने को बेताब रहते थे... भले ही हमारे बीच कोई मौखिक बात नहीं होती थी परंतु टहलते हुए उसका दिख जाना और देखकर वो मुस्कुराना... कसम से... तुझे देखा तो ये जाना सनम वाली भावनाएं उमड़ आती थीं...

खैर अब हम सहपाठीयों के, विश्वविद्यालय के और छात्रावास के समीकरण तो समझते जा रहे थे... लेकिन बहुत कुछ अनुभव करना और समझना अभी बाकी था...

यह था कहानी का भाग 4  | 
आपको यह कहानी कैसी लगी बताइयेगा जरुर , आपके सुझाव का इंतजार रहेगा | 

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